Sunday, December 22, 2013

देवयानी प्रकरण पर मेरे विचार

भारतीय दूतावास की कर्मचारी देवयानी को अमरीका में अपनी नौकरानी को कम वेतन दिए जाने के लिए गिरफ़्तार करना और उनके साथ अपमानजनक बर्ताव करना सभी भारतीयों के खून को खौलानेवाला प्रकरण है। देवयानी को अपने ही बच्चों के सामने हथकड़ियों में जकड़कर सरे आम ले जाया गया और जेल में उनके साथ बहुत ही कुत्सित बर्ताव किया गया, उसी तरह का बर्ताव जैसे हत्यारों, नशाखोरों, बलात्कारियों आदि के साथ किया जाता है – पुलिसकर्मियों ने देवयानी को नंगा करके, उनके शारीरिक द्वारों में (योनी, मुँह, गुदा, आदि) में उँगली या अन्य चीजें डालकर जाँच की (कैविटी सर्च), यह मालूम करने के लिए कि उन्होंने वहाँ कोई हथियार या नशीली दवा तो नहीं छिपा रखी है। अमरीका में संगीन जुर्मों के कैदियों के साथ ऐसा दुर्व्यवहार किया जाता है। पर देवयानी तो कोई संगीन जुर्म के लिए पकड़ी गई कैदी नहीं थीं, और तो और वे एक स्वाधीन राष्ट्र के दूतावास की कर्मचारी थीं, जिसके साथ अमरीका के दोस्ताना संबंध थे, तथा एक स्वतंत्र देश के दूतावास के कर्मी होने के कारण उन्हें अमरीका के क़ानूनों से एक प्रकार का अभयदान मिला हुआ था। पर इन सब बातों को दरकिनार करके देवयानी के साथ बदसलूकी की गई।

अब सवाल उठता है कि ऐसा क्यों हुआ। मुझे लगता है कि इसके पीछे अनेक कारण हैं। पहला कारण देवयानी को गिरफ़्तार करनेवाले भारतीय मूल के व्यक्ति प्रीत भरारा के व्यक्तित्व से जुड़ा है। यह व्यक्ति शायद अमरीकियों को यह दिखाना चाहता है कि वह उनसे भी बढ़कर अमरीकी है, और इसे ज़ाहिर करने का इससे बढ़िया क्या तिकड़म हो सकता है कि वह अपने ही मूल देश के देशवासियों को अमरीकी क़ानूनों के फंदे में फँसाए। ऐसा करके वह शायद यह दिखाना चाहता है कि उसने अपनी भारतीयता की केंचुली पूरी तरह से उतार फेंक दी है, और वह संपूर्ण रूप से अमरीकी हो गया है। शायद उसके मन में राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी हो, और देवयानी के प्रति बदसलूकी करके उसे उम्मीद हो कि अमरीका के लोग उस पर उसकी भूरी चमड़ी के बावजूद अधिक भरोसा करने लगेंगे। या ऐसा भी हो सकता है कि वह अमरीकी में फल-फूल रहे भारत-विरोधी खेमों में से किसी के हाथों का कठपुतली बन गया हो, जो अमरीका में भारत को नीचा दिखाकर न जाने क्या उल्लू सीधा करना चाहते हैं – ये लोग नरेंद्र मोदी को विदेशों में बदनाम करने और उसे अमरीकी वीज़ा से वंचित करने के लिए ऐड़ी-चोटी का पसीना एक किए हुए हैं और पैसा पानी की तरह बहा रहे हैं। अब जब ऐसा लग रहा है कि नरेंद्र मोदी अगले चुनाव के बाद भारत के प्रधान मंत्री के रूप में उभरकर आ सकता है, स्वयं इनके पसीने छूटने लगे हैं। शायद यह बरार ऐसी ही मनोवृत्तिवाला भारत-द्वेषी व्यक्ति हो।

  यह इस प्रकरण का एक संभव स्पष्टीकरण है। एक अन्य संभाव्यता यह है कि देवयानी की नौकरानी संगीता और उसके परिवार भारत में अमरीकियों के लिए जासूसी करने में लगे हुए थे और उन्हें बचाने के लिए ही देवयानी को बलि का बकरा बनाया गया है। देवयानी को अपनी नौकरानी को कम वेतन देने के ज़ुर्म में फँसाकर, अमरीका ने संगीता, उसके पति तथा परिवार के अन्य सदस्यों को रातों-रात अपने देश में शरण दे दी है। अब हर कोई जानता है कि अमरीका में एक आम भारतीय को शरण तो दूर प्रवेश करने तक का वीज़ा मिलना कितना कठिन काम है। पर संगीता और उसके परिवार को, जो मात्र एक नौकरानी है, अमरीका ने सपरिवार वीज़ा देकर अपने देश में सुखपूर्वक बसाया है। ज्ञातव्य रहे कि संगीता के पिता भारत में अमरीकी दूतावास में बरसों से काम करते आ रहे हैं। निश्चय ही इस दौरान उन्होंने अनेक अमरीकियों से घनिष्ट संबंध बना लिए होंगे, जो संगीता के इस समय काम आए। शायद वे अमरीकियों के लिए कोई अन्य महत्वपूर्ण सेवा भी प्रदान करते रहे होंगे, जिसके प्रति कृतज्ञता जताते हुए उन्होंने संगीता को सपरिवार अपने देश में उठा ले जाने जैसा विलक्षण कार्य किया। स्पष्ट ही यह काम अमरीकियों के लिए अति महत्वपूर्ण रहा होगा, वरना वे ऐसा क्यों करते। जासूसी ही ऐसा काम मुझे प्रतीत हो रहा है जिसकी अमरीकी इतनी अधिक कीमत आँकते। अब सवाल यह उठता है कि संगीता के परिवार ने अमरीकियों को क्या-क्या गुप्त बातें बताई हैं और यह जानकारी भारत के लिए कितना अधिक नुकसानदेह साबित हो सकती है। इसका तो आनेवाले दिनों में ही खुलासा हो सकता है, और इसकी संभावना भी कम ही है, क्योंकि जासूसी से संबंधित अनेक बातें कभी उजागर होती ही नहीं हैं।

एक अन्य संभाव्यता यह है कि अमरीका इस प्रकरण के जरिए भारत को किसी अन्य चीज़ के लिए सज़ा दे रहा है। अभी हाल में हमारे रक्षा मंत्री ए के ऐंटनी ने एक बहुत ही महँगे रक्षा निवादा से अमरीकियों का पत्ता काट दिया था। इसी तरह से कुछ अन्य मामलों में भी अमरीकी उद्योगों के प्रस्तावों के स्थान पर अन्य देशों के प्रस्तावों को चुना गया था। इससे अमरीकी उद्योग ताव में आ गया है, और वह भारत को सबक सिखाने के मौके की तलाश कर रहा है। शायद उसने प्रीत बरार के माध्यम से जाल बिछाकर देवयानी को उसमें फँसाकर भारत के विरुद्ध प्रतिघात किया हो।

इसके पीछे आर्थिक कारण भी हैं। पहले भारत की अर्थव्यवस्था चीन की अर्थव्यवस्था जितनी ही चुस्त-दुरुस्त थी और तेज़ी से विकसित हो रही थी। पर पिछले कुछ सालों में भारतीय अर्थव्यवस्था की हवा निकल गई है, वह चीन की बराबरी तो दूर विश्व के दोयम दर्जे के देशों से भी पीछे हो गया है। अमरीका मुख्य रूप से पूँजीवादी देश है और उसकी बागडोर वहाँ के बड़े-बड़े धन्नासेठों के हाथों में ही रहती है। इन्हें अब भारत उतना आकर्षक नहीं लग रहा है, और इसलिए भारत के प्रति सम्मान दर्शाना भी वे अब आवश्यक नहीं मान रहे हैं। इसीलिए भारत के दूतावास के कर्मी के प्रति अमरीका ने ऐसा अवहेलनापूर्ण व्यवहार किया है जैसा वह अफ्रीका के ग़रीबों और कम महत्वपूर्ण देशों के दूतों के साथ भी नहीं करता है।

  इस सारे काँड में सबसे अखरनेवाली बात यह है कि देवयानी को प्रताड़ित करनेवाला व्यक्ति एक पूर्व-भारतीय है। हम विदेशों में रह रहे अपने देश के लोगों पर उचित ही गर्व करते हैं और उनकी उपलब्धियों को अपनी ही उपलब्धियाँ मानते हैं, भले ही इन लोगों ने दूसरे देशों की नागरिकता स्वीकार कर ली हो। हम यही विश्वास करते हैं कि ऐसा उन्होंने मजबूरी में किया है, और वे दिल से अब भी भारतीय हैं और सदा भारतीय ही रहेंगे। अब इस प्रीत बरार ने सिद्ध कर दिया है कि हमारी यह धारणा कितनी मासूम और अवास्तविक है। इस आदमी के बर्ताव से भारत के प्रति अंशमात्र भी सम्मान या प्रेम नहीं झलक रहा है। वह तो भारत को अनादर करने पर तुला हुआ सा प्रतीत हो रहा है। और यही बात हम भारतीयों को समझ में नहीं आ रही है, कि कैसे भारतीय मूल का कोई व्यक्ति इस कदर राह भटक सकता है, कि वह अपने ही वतन की छाती पर वार कर बैठे।

इससे हमें सबक भी लेनी चाहिए, और वह यह है कि विदेशों में बसे भारतीय मूल के लोगों को भारत के साथ जोड़े रखने के लिए हमें और मेहनत करनी होगी। आज स्थिति यह है कि एक-दो पीढ़ी में वे भारत से इतने कट जाते हैं कि उनमें से कई प्रीत बरार के ही अन्य संस्करण बन जाते हैं। उनका भारत के साथ नाता उनकी भूरी चमड़ी और नाक-नक्शे तक ही सीमित रह जाता है। दिल और दिमाग से वे भारतीयता से पूरी तरह मुक्त हो जाते हैं। यह भारत के लिए बहुत बड़ी क्षति है। क्योंकि भारतीयता की अवधारणा भारत की राजनीतिकि सीमाओं तक सीमति नहीं है, बल्कि वह एक विश्वव्यापी चीज़ है। भारत से निकला व्यक्ति चाहे कहीं भी जाए और चाहे जिस देश का भी नागरिक हो जाए, वह भारत के लिए मूल्यवान है, और भारत को और भारतवासियों को उसे भारत के साथ जोड़े रखने का हर संभव प्रयास करना चाहिए। यह प्रयास राज्य के स्तर पर और सामाजिक संगठनों के स्तर पर और व्यक्तिगत स्तर पर हमें करना होगा। राज्य के स्तर पर उन्हें दुहरी नागरिकता देना और भारत में उन्हें अन्य विदेशियों की तुलना में अधिक सहूलियतें देना जैसे कार्य शामिल हैं। सामाजिक स्तर पर यहाँ के धार्मिक संगठनों तथा कला-आदि से संबंधित संगठनों को उन्हें अपनी भारतीयता बरकार रखने में मदद करनी चाहिए। यह काम सबसे अच्छा हिंदी फिल्में कर रही हैं, पर समाज के अन्य स्तरों पर भी यह होना चाहिए। व्यक्तिगत स्तर पर भी हम इसमें मदद कर सकते हैं।

भारतीयता का सबसे महत्वपूर्ण पहलू भारतीय भाषाओं, विशेषकर हिंदी, से इन प्रवासी भारतीयों का संबंध है। यह भाषाई सेतु उन्हें धर्म, साहित्य, फ़िल्म, संगीत आदि भारतीयता के अन्य पहलुओं से जोड़े रखता है। और यही भाषाई सेतु प्रवासी भारतीयों के लिए सबसे पहले टूटती है, विशेषकर उन प्रवासी भारतीयों के लिए जो अँग्रेज़ी बोलनेवाले देशों में बसते हैं। वे एक-दो पीढ़ी में ही अपनी मूल भाषा और हिंदी को भूल जाते हैं, और अँग्रेज़ी ही उनकी एकमात्र भाषा रह जाती है। और भाषा का यह संबंध खत्म होते ही, धर्म, साहित्य, कला, संगीत आदि के साथ उनका नाता भी टूट जाता है।

इसलिए मेरी दृष्टि में, विदेशों में बसे भारतीयों में भारत के प्रति सहानुभित बनाए रखने के लिए हमें उनकी भाषाई सेतु, और विशेषकर हिंदी के साथ उनके संबंध, को बनाए रखने की ओर खास ध्यान देना चाहिए।

Friday, September 27, 2013

लंचबॉक्स जैसी एक मलयालम फ़िल्म भी है

लंचबॉक्स फ़िल्म आजकल काफी चर्चे में है। इसके ऑस्कार के लिए नामित किए जाने तक की बात चल पड़ी थी, पर आखिरी वक्त पर किसी दूसरी फ़िल्म को भारत की ओर से ऑस्कार का प्रतिनिधि चुना गया।

हिंदी में लंचबॉक्स भोजन को लेकर बनी इनी-गिनी फ़िल्मों में से एक है, इससे पहले, अमिताभ बच्चन और तब्बू वाली चीनी कम, और लव शव चिकन खुराना फ़िल्म काफी चली थी, जिसमें भी कहानी स्वादिष्ट भोजन के इर्द-गिर्द घूमती है। चीनी कम और लव शव चिकन खुराना एक संपूर्ण बॉलीवुड फ़िल्म हैं, नाच-गाने से भरूपर सफल व्यावसायिक रोमैटिंक कॉमेडी। लंचबॉक्स की विधा डॉक्यूमेंटरी के अधिक निकट जा पड़ी है, वह आर्ट फ़िल्म के खेमे में मानी जाएगी। लंचबॉक्स बॉलीवुड शैली की फ़िल्म नहीं है। फिर भी लंचबॉक्स एक सुंदर फ़िल्म है, जिसमें सभी अदाकारों ने उम्दा अभिनय किया है, चाहे वह ईरफ़ान खान हो, या नवासुद्दीन सिद्दीक़ी, या निम्रत कौर।

यह फ़िल्म आधी हिंदी में और आधी अँग्रेज़ी में है – इरफ़ान खान के सभी पत्र अँग्रेजी में हैं और उन्हें फ़िल्म में अँग्रेजी में ही पढ़कर सुनाया जाता है। इस कारण से केवल हिंदी जाननेवालों को लगभग आधी फ़िल्म समझ में नहीं आएगी। फ़िल्म का केंद्रीय हिस्सा लंचबॉक्स के ज़रिए निम्रत कौर और इरफ़ान खान के बीच पत्रों के विनिमय से जुड़ा है, यह इस फ़िल्म की एक मुख्य खामी है। पर शायद इस फ़िल्म को भारतीय दर्शकों के लिए नहीं बल्कि विदेशी दर्शकों को ध्यान में रखकर बनाया गया है, या यों कह लीजिए, उच्च वर्ग के भारतीयों या विदेशों में बसे भारतीयों के लिए बनाया गया है, जो इतनी अँग्रेज़ी जानते हैं कि फ़िल्म के इन हिस्सों को समझ सकें। इस कारण से यह फ़िल्म देश के शहरी हिस्सों में ही चल सकेगी। गाँवों में जहाँ लोग अँग्रेज़ी से वाकिफ़ नहीं होते हैं, इसे समझ नहीं पाएँगे।

फ़िल्म का माहौल मुंबई पर टिका है – विशेषकर डिब्बेवालों और लोकल ट्रेनों पर। यह भी थोड़ा कृत्रिम लगता है, और ऐसा लगता है कि डिब्बेवालों की अंतर्राष्ट्रीय ख्याति को भुनाने का प्रयत्न किया गया है। डिब्बेवालों का ट्रेन में बैठे तुकाराम के गीत गानेवाला अंश जो बारबार फ़िल्म में दिखाया गया है, मुझे काफ़ी अस्वाभाविक लगा।

फ़िल्म की कुछ अन्य बातें में भी खटकती हैं, जैसे इरफ़ान का सड़क में क्रिकेट खेल रहे बच्चों के साथ अँग्रेज़ी में बात करना, जबकि वे हिंदी अच्छी तरह जानते हैं और दफ़्तर में नवासुद्दीन आदि के साथ बड़ी अच्छी हिंदी बोलते हैं। भले ही इरफ़ान का किरदार एक ईसाई व्यक्ति का है, फिर भी कोई भी सड़क पर खेल रहे बच्चों के साथ अँग्रेज़ी में नहीं बात करेगा। यदि इरफ़ान अँग्रेज़ी में बच्चों को डाँटते, और बच्चे हिंदी में उन्हें अपनी सफ़ाई देते, तो यह फिर भी अधिक स्वाभाविक लगता, क्योंकि उस उम्र के और उस आर्थिक वर्ग के बच्चे अँग्रेज़ी नहीं बोलते हैं, हिंदी ही बोलते हैं। फ़िल्म के निर्माताओं/निदेशकों द्वारा यह दर्शाना कि ईसाई लोगों की ज़ुबान अँग्रेज़ी है, वास्तविकता से कोसों दूर है। भारत के ईसाई भारत की ही विभिन्न भाषाएँ बोलते हैं। यहाँ भी फ़िल्म के निर्माताओं/निदेशकों की नज़र विदेशी दर्शकों पर रही है।

पर फ़िल्म की सबसे बड़ी कमी तो यह है कि यह अचानक समाप्त हो जाती है। इसे यथार्थता कहा जा सकता है, पर इससे फ़िल्म एक डोक्यूमेंटरी जैसे लगती है – डिब्बेवालों पर बनी डोक्यूमेंटरी।

अब रही फ़िल्म की मुख्य कहानी की बात, यह भी कुछ मौलिक नहीं है। इसी तरह की एक फ़िल्म मलयालम में कुछ वर्ष पहले बन चुकी है, और यह फ़िल्म भी इतनी ही सुंदर और लोकप्रिय हुई थी, पर मलयालम जगत में। हिंदी वालों ने शायद ही उसके बारे में सुना होगा। यह फ़िल्म है सॉल्ट एंड पेप्पर

सॉल्ट एंड पेप्पर (नमक और काली मिर्च) अनेक दृष्टियों से लंचबॉक्स से कहीं श्रेष्ठ फ़िल्म है। इसमें भी कहानी भोजन पर (दक्षिण भारतीय भोजन) पर आधारित है और यहाँ भी किसी को भेजा गया संदेश किसी और को पहुँच जाता है। इस फ़िल्म में टेलिफ़ोन के क्रॉस कनेक्शन से ऐसा होता है। एक विज्ञापन कंपनी में काम कर रही स्त्री एक होटल से ढोसा मँगाती है, और होटल को निर्देश देती है कि ढोसा किस तरह से बनाकर लाना है। पर यह फ़ोन होटल को न जाकर एक पुरातत्ववेत्ता को पहुँचता है जो किसी सुनसान पुरातत्व स्थल में अपने रसोइए द्वारा बनाए गए नीरस भोजन से तंग आ चुका है। जब उसे भोजन के संबंध में यह लार-टपकानेवाला फ़ोन कॉल आता है, तो वह पहले तो झुँझला उठता है, पर फिर चुपचाप सुनता जाता है। आगे के दिनों में यह क्रॉस कनेक्शन बारबार होता है और चूँकि यह पुरातत्ववेत्ता भी महा भोजन-भट्ट है, दोनों में धीरे-धीरे दोस्ती होती जाती है, जो मुख्य रूप से दोनों का भोजन पर रुचि होने पर आधारित होती है।

जिस तरह लंचबॉक्स में नवासुद्दीन सिद्दकी की भूमिका इरफ़ान के शागिर्द की है, वैसे ही सॉल्ट एंड पेप्पर में भी पुरातत्ववेत्ता के एक साइड-किक (शागिर्द) के रूप में उसका एक भाँजा उसके साथ रहने आता है (यह भूमिका मलयालम फ़िल्म जगत के उभरते सुपरस्टार आसिफ़ अली ने बहुत ही अच्छे ढंग से निभाया है)। आसिफ़ अली नौकरी की तलाश में बैठे एमबीए की पढ़ाई पूरी कर चुके छात्र की भूमिका निभाता है, जो नौकरी लगने तक कुछ समय अपने मामा के साथ बिताने आया है।

लंचबॉक्स में निम्रत कौर की एक अधेड़ उम्र की पड़ोसिन है जिसकी केवल आवाज़ सुनाई देती है। इससे मिलती-जुलती एक भूमिका सॉल्ट एंड पेपर में भी है। यह है होटल से ढोसा मँगानेवाली स्त्री की सहकर्मी।

जब ढोसा वाली स्त्री और पुरातत्ववेत्ता में दोस्ती बढ़ती जाती है, दोनों में एक-दूसरे के प्रति प्यार के अंकुर भी फूटने लगते हैं। दोनों शादी करने की सामान्य उम्र पार चुके हैं, और उन्हें आशा बँधती है कि शायद यह उनके लिए आखिरी मौका है। पर दोनों को ही अपने ऊपर विश्वास नहीं है। पुरातत्ववेत्ता को लगता है कि वह बूढ़ा और कुरूप है, और जब फ़ोन वाली स्त्री उसे आमने-सामने देखेगी तो उसका मोह-भंग हो जाएगा। स्त्री का भी यही ख्याल है। इसलिए जब दोनों एक-दूसरे से मिलने का निश्चय करते हैं, तो पुरात्ववेत्ता आसिफ़ अली को उसकी जगह भेजता है, और फ़ोन वाली स्त्री अपनी सहकर्मी को, जो उम्र में उससे बहुत छोटी है। दोनों अपने-अपने प्रतिनिधि को निर्देश देते हैं कि जाकर देख आओ कि वह कैसा/कैसी है। जब फ़ोनवाली स्त्री की सहेली आसिफ़ अली को देखती है, तो उसे लगता है कि इतनी कम उम्र का लड़का उसकी सहली का जीवन-साथी नहीं बन सकता है, और असिफ़ अली को भी फ़ोनवाली स्त्री की सहेली को देखकर यही बात लगती है। दोनों जाकर बता देते हैं यह रिश्ता महज हवाई कल्पना है और यह दोनों के लिए बिलकुल बेमेल है। इतना ही नहीं, कहानी में ट्विस्ट के रूप में असिफ़ अली को फ़ोनवाली स्त्री की सहेली से प्यार भी हो जाता है। और पुरातत्ववेत्ता को लगता है कि असिफ़ अली ने इसी कारण उससे झूठ बोला है कि फ़ोनवाली स्त्री के साथ उसका संबंध बेमेल साबित होगा। इससे जो ईर्ष्या, जलन, झगड़े आदि होते हैं, उसको लेकर फ़िल्म काफी उलझ जाती है।

पुरतत्ववेत्ता को अब अपने काम में ज़रा भी मज़ा नहीं आता है और उसकी झुँझलाहट और भी अधिक बढ़ जाती है। वह अपने रसोइए से भी लड़ पड़ता है, जिसके साथ वह बचपन से ही रहता आ रहा है। यही हाल फ़ोनवाली लड़की का भी होता है, वह भी जीने की इच्छा खो बैठती है।

फ़िल्म का अंत हैपी ऐंडिंग में होता है, और दोनों एक-दूसरे से मिलते ही नहीं, बल्की एक-दूसरे से विवाह भी कर लेते हैं। यह कहना मुश्किल है कि लंचबॉक्स की कहानी इस मलयालम फ़िल्म से चुराई गई है या नहीं। ऐसा भी हो सकता है कि दोनों ही फ़िल्मों की मूल-प्रेरणा किसी अन्य जगह से आई हो। जो भी हो, लंचबॉक्स और सॉल्ट एंड पेप्पर में इतनी अधिक समानताएँ है कि वे इन दोनों फ़िल्मों को देखनेवालों को बरबस आकर्षित करती हैं। मुझे स्वयं लंचबॉक्स से अधिक सॉल्ट एंड पेप्पर पसंद आई। वह एक संपूर्ण फ़िल्म की तरह लगती है, यानी उसमें कहानी एक मुकाम तक पहुँचती है, और लंचबॉक्स की तरह अधर में लटकी हुई नहीं रहती है।

सॉल्ट एंड पेप्पर संपूर्ण रूप से एक व्यावसायिक – और सफल – फ़िल्म है, जबकि लंचबॉक्स फ़िल्म फ़ेस्टिवलों, विदेशी दर्शकों और ऑस्कार जैसे पुरस्कारों को ध्यान में रखकर बनाई गई है। वह भारतीय दर्शकों के साथ सही गोट नहीं बैठा पाती है। तकनीकी दृष्टि से लंचबॉक्स त्रुटि-रहित फ़िल्म हो सकती है, पर यह भारतीय फ़िल्मों के रसिकों को रुचती नहीं है। यही इस फ़िल्म की कमी है।

आपमें से जिन लोगों ने लंचबॉक्स और मलयालम की सॉल्ट एंड पेप्पर फ़िल्म दोनों देखी हों, वे बताएँ कि क्या उन्हें भी इन दोनों फ़िल्मों की समानताएँ देखकर आश्चर्य हुआ था।

Monday, March 25, 2013

टाइम्स ऑफ़ इंडिया का दकियानूसी उर्दू प्रेम

संजय दत्त को पाँच साल की जेल सज़ा होने की ख़बर आते ही अख़बारों में इसी की चर्चा छायी रही। टाइम्स ऑफ़ इंडिया में भी यही बात थी। उसमें छपी एक ख़बर ने विशेषरूप से मेरा ध्यान आकर्षित किया और मैं सोचने के लिए मजबूर हुआ कि यह अख़बर इस तरह का घिनौना काम क्यों कर रहा है।

यह ख़बर थी, उर्दू अख़बारों में संजय दत्त के मामले में क्या कहा गया है इसकी समीक्षा। अब टाइम्स ऑफ़ इंडिया आए दिन तो उर्दू अख़बारों में क्या छपा है इसकी समीक्षा प्रकाशित नहीं करता है न ही अन्य महत्वपूर्ण विषयों पर उर्दू अख़बारों को याद करता है – उदाहरण के लिए लगभग इसी समय इतालवी कमांडो को इटली से वापस न भेजने का इटली की संसद का निर्णय भी एक मुख्य सुर्खी रही थी, पर टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने इस मुद्दे पर उर्दू अख़बारों की राय की तलब नहीं की।

थोड़ा सोचने पर विदित होता है कि टाइम्स ऑफ़ इंडिया उर्दू अख़बारों का उन्हीं संदर्भों में उल्लेख करता है जिनका संबंध मुसलमानों से होता है। संजय दत्त मामले का संबंध मुंबई में आतंकवादियों द्वारा बम विस्फोट कराए जाने से है, और यह बम विस्फोट इससे पहले बाबरी मसजिद के ढहाए जाने के बाद हुए दंगों में सैकड़ों मुसलमानों को शिव सेना आदि हिंदुत्व पार्टियों द्वारा मौत के घाट उतार दिए जाने के बदले में कराए गए थे। इस तरह संजय दत्त मामले का सीधा संबंध मुसलमानों से है। इसीलिए टाइम्स ऑफ़ इंडिया इस मामले के बारे में उर्दू अख़बारों के विचारों की समीक्षा करता है। इससे पहले टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने अफ़सल गुरु को फाँसी दिए जाने के बाद भी इस संबंध में उर्दू अख़बारों में छपे लेखों की समीक्षा छापी थी।

टाइम्स ऑफ़ इंडिया की यह करतूत कितनी राष्ट्रविरोधी और घातक है यह उन सभी को मालूम होगा जो यह जानते हैं कि उर्दू मात्र मुसलमानों की भाषा नहीं है बल्कि वह उत्तर और दक्षिण भारत (जहाँ उर्दू साहित्य का उद्भव और प्ररंभिक विकास हुआ था) के शिष्टजनों की भाषा है, जिनमें हिंदू, मुसलमान, सिक्ख, दलित आदि सभी शामिल हैं। उर्दू को मुसलमानों की भाषा के रूप में प्रचारित करना अंग्रेजों की बाँटो और राज करो कूटनीति का अंग था, जो भयानक रूप से सफल हुआ और मानव इतिहास के सबसे बड़े नरसंहार को जन्म दे बैठा और देश को दो (और बाद में तीन) टुकड़ों में बाँट बैठा, और यह नरसंहार अब भी थमा नहीं है – पाकिस्तान में जो नरमेध मचा हुआ है वह इसका सबूत है।

तो टाइम्स ऑफ़ इंडिया द्वारा उर्दू अख़बारों की तलब केवल मुसलमानों से संबंधित विषयों में करना अंग्रेज़ों की इसी बाँटो और राज करो वाली घातक नीति को तूल देना है और उर्दू को मात्र मुसलमानों के साथ जोड़कर उसकी असमय मृत्यु के लिए रास्ता साफ करना है। आज यदि इस देश में उर्दू की हालत खस्ता है, तो इसका मुख्य कारण उसे मुसलमानों की भाषा समझना और देश-विभाजन और पाकिस्तान के निर्माण के लिए उसे जिम्मेदार ठहराना है। जिस भाषा का संबंध देश विभाजन से हो और पाकिस्तान जैसे शत्रुतापूर्ण देश से संबंधित हो, उसे देशवासियों के दिलों में कैस स्थान मिल सकता था। पर यह निष्कर्ष एक ग़लत प्रचार पर आधारित है। उर्दू न तो मात्र मुसलमानों की भाषा है न ही वह किसी ग़ैर-भारतीय उपज है। वह इस देश में पैदा हुई नवीनतम भाषा है जिसमें गज़ब की अभिव्यक्ति शक्ति है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि यह इस देश की सबसे लोक-प्रिय और आम भाषा है, और यह हिंदी का ही एक परिष्कृत रूप है। जिस तरह हनुमान शाप-वश अपनी ही ताकत़ भूल गए थे, उसी तरह हिंदी भी अंग्रेजों की बाँटो और राज करो कूटनीति के शाप के प्रभाव से अपने ही परिष्कृत रूप उर्दू को भूल ही नहीं गई है बल्कि उसे अपना शत्रु मानने लगी है, यद्यपि कई जांबवानों ने हिंदी को अपने भूले-बिसरे रूप उर्दू की याद दिलाई है – डा. रामविलास शर्मा ने कई दशक पहले यह काम किया था, और अब न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू यह काम कर रहे हैं। आइए, इसे समझें कि हिंदी और ऊर्दू को, जो एक भाषा हैं, अलग क्यों और कैसे किया गया।

1857 के संग्राम में हिंदू और मुसलमान कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेजों से लड़े थे और उनका लगभग इस देश से खात्मा कर दिया था। यदि पंजाब, नेपाल आदि कुछ रियासत अंग्रेजों की फ़ौजी मदद न करते और दक्षिण के रियासत इस संग्राम में शामिल हो गए होते तो अंग्रेजों का बोरिया-बिस्तर तभी बंध चुका होता और आज भारत का इतिहास, और विश्व का इतिहास भी, कुछ और ही हुआ होता। पर इस संग्राम को दबाने में अंग्रेज सफल हुए और वे समझ गए कि इस देश पर अपनी हुकूमत कायम रखनी हो, तो यहाँ के लोगों को विभिन्न परस्पर वैमनस्यपूर्ण गुटों में तोड़ना होगा। इनमें से प्रमुख गुट हिंदुओं और मुसलमानों के थे। इनमें दरार डालने की कूटनीति अंग्रेजों ने बड़े ही संगठित तरीके से शुरू कर दी। इस कूटनीति की आधारशिला भारतीय जनता की उस समय की साझी भाषा हिंदुस्तानी को दो अलग-अलग भाषाओं में विभाजित करना थी। अंग्रेज जानते थे कि कौमी एकता का एक प्रमुख खंभा भाषा होता है और भाषा को बाँटते ही कौम भी बँट जाता है।

इस नीति के तहत फोर्ट विलयम में स्थापित भाषा कोलेज में भाषाविद गिलक्राइस्ट के नेतृत्व में हिंदी और उर्दू को अलग करने की साजिश को अंजाम दिया गया। गिलक्राइस्ट ने पंडित सदासुखलाल जैसे लेखकों की मदद से संस्कृत बहुल भाषा में कुछ पुस्तकें प्रकाशित करवाईं, और इसी प्रकार उर्दू-फारसी बहुल भाषा में और फारसी लिपि में कुछ अन्य किताबें छपवाईं और यह घोषित कर दिया कि हिंदी हिदुओं की भाषा है और उर्दू केवल मुसलमानों की। इसके अलावा अंग्रेजों ने अनगिनत मौलवियों और पंडितों को भी इस घातक धारणा को प्रचारित करने के काम में लगा दिया। कुछ ही दशकों में उनका यह प्रचार रंग लाने लगा और लोग हिंदी और उर्दू को अलग-अलग भाषाएँ समझने लगे। इतना ही नहीं हिंदी को मात्र हिंदुओं की और उर्दू को मात्र मुसलमानों की भाषा मानने लगे। इसकी परिणति देश-विभाजन और देश के विभाजन से जुड़े भयानक नर-संहार में हुई।

हिंदी-उर्दू अलग-अलग भाषाएँ हैं, यह बात कितनी बेबुनियाद है यह इस पर विचार करने से स्पष्ट हो जाएगा कि हमारे प्रेमचंद हिंदी और उर्दू दोनों में ही लिखते थे। इसके अलावा मंटो, फिराक, राजिंदर सिंह बेदी, आदि अनेक उर्दू के लेखक मुसलमान नहीं हैं। आज भी यदि आप उत्तर प्रदेश या बिहार के देहाती इलाकों में चले जाएँ और लोगों की बातें सुनें, तो आप कह नहीं पाएँगे कि वे हिंदी बोल रहे हैं या उर्दू। उर्दू-हिंदी में केवल उच्च स्तरीय लेखन और लिपि में फ़र्क है, और इस फ़र्क को दूर करना कोई मुश्किल काम नहीं है। लिपि की समस्या कुछ हद तक आज कम होती जा रही है क्योंकि अब बहुत सी उर्दू रचनाएँ देवनागरी लिपि में भी प्रकाशित हो रही हैं और खूब बिक रही हैं क्योंकि देवनागरी लिपि में आने से वे हिंदी भाषियों को भी सुलभ हो जाती हैं।

अब अंग्रेजों के यहाँ से गए साठ से अधिक वर्ष हो गए हैं और हममें से कई लोग इस बात को समझने लगे हैं कि अंग्रेजों ने हमें कैसे उल्लू बना दिया था। पर इन समझनेवाले लोगों में टाइम्स ऑफ़ इंडिया शामिल नहीं है। वह अब भी यह राग अलाप रहा है कि उर्दू मुसलमानों की भाषा है और उर्दू अख़ाबार की राय उन्हीं विषयों में लेने की ज़रूरत है जिनका संबंध मुसलमानों से है। आश्चर्य की बात यह है कि यही अख़बार बड़े ज़ोर-शोर से अमन की आशा नाम का अभियान चला रहा है जिसका कथित उद्देश्य भारत और पाकिस्तान के बुद्धि जीवियों को निकट लाना है। पर इस अख़बार को यह मामूली बात भी अब तक समझ में नहीं आ सकी है कि भारत और पाकिस्तान को निकट लाने का सूत्र दोनों की भाषा में बनाई गई कृत्रिम दरारों को दूर करने में निहित है। भारत और पाकिस्तान को पास लाने का पहला सोपान हिंदी और उर्दू का एकीकरण है। और यह एकीकरण तब तक संभव नहीं है जब तक उर्दू को मात्र मुसलमानों की भाषा समझा जाता जाएगा। उर्दू समस्त भारत की उपज है। वह हिंदुओं और मुसलमानों, सिक्खों और अन्य समुदायों की साझी विरासत है। उसमें भाषाई नज़ाकत चरम स्थिति तक पहुँचा दी गई है और इस भाषा में गज़ब की अभिव्यक्ति शक्ति है। इस अभिव्यक्ति शक्ति से अपने आपको वंचित करने के कारण ही हिंदी वह भव्यता नहीं प्राप्त कर पाई है जो वह प्राप्त कर सकती थी। हिंदी में संस्कृत के शब्द भरने और उससे आम बोलचाल के शब्दों को उर्दू के शब्द मानकर निकालने की जो ग़लती की गई, उससे उसकी अभिव्यंजना शक्ति काफी हद तक कुंठित हुई। इतना ही नहीं, उसे फिर से परिमार्जीत करने में दशकों लग गए। अब भी यह नहीं कहा जा सकता है कि वह संपूर्ण रूप से परिमार्जित हो गई है। यह इस बात से स्पष्ट है कि हिंदी की कविताएँ - और भाषा अपने सबसे अधिक निखरे हुए रूप में कविताओं में ही दिखाई देती है - अब भी आम आदमी के लिए दुरूह हैं। क्या आप किसी आम आदमी को निराला, जय शंकर प्रसाद, नागार्जुन, मुक्तिबोध आदि की कविताओं का रसास्वादन करते हुए सोच सकते हैं? इनके लिए इन महान कवियों की कविताएँ दुरूह और कठिन ही बनी हुई हैं। इसकी तुलना में उर्दू की गज़लें, ग़ालिब की रचनाएँ और और अन्य उर्दू शायरों की कविताएँ, आम लोगों की ज़ुबानों पर चढ़ चुकी हैं, उनके कई अंश मुहावरों का रूप ले चुके हैं। उर्दू के कहानी-किस्से भी लोगों में अत्यंत लोकप्रिय हैं। समस्त हिंदी फिल्म और फिल्मी गानों की भाषा अधिकांश में उर्दू है और उनकी लोकप्रियता को लेकर कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं है।

यदि हिंदी और उर्दू में कृत्रिम दरारें नहीं डाली गई होतीं, तो इस मिली-जुली भाषा ने मुग़लों के अंतिम समय में जो आश्चर्यजनक कथन शैली विकसित कर ली थी, वह अनायास ही हिंदी को प्राप्त हो गई होती और उसे कई दशक बिताकर नए सिरे से अपनी अभिव्यंजना शक्ति विकसित नहीं करनी पड़ती और हिंदी आज जहाँ पहुँच सकी है, उससे कई दशक आगे की मंजिल प्राप्त कर गई होती।

यह बात बरसों पहले डा. रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तकों में कही थी, और एक अनोखे संयोग से आज लगभग उन्हीं की बातों को एक समकालीन विचारक दुहरा रहे हैं। ये हैं सेवानिवृत्त न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू जो प्रेस कांउसिल के अध्यक्ष भी हैं। उन्होंने अपने ब्लॉग सत्यम ब्रूयत में दो महत्वूपूर्ण लेख लिखे हैं जिनका विषय उर्दू और देश-विभाजन हैं। अपने उर्दू वाले लेख में उन्होंने लगभग वे बातें दुहराई हैं जो डा. शर्मा पहले कह चुके हैं, कि उर्दू मात्र मुसलमानों की भाषा कतई नहीं है बल्कि वह भारत में रहनेवाले लोगों की साझी विरासत है, जिनमें हिंदू, मुसलमान, इसाई, सिक्ख, दलित सभी शामिल हैं। उन्होंने अंग्रेजों द्वारा इस साझी भाषा को तोड़ने की कूटनीति का भी विस्तार से वर्णन किया है। अपने दूसरे महत्वपूर्ण लेख में उन्होंने पाकिस्तान को एक कृत्रिम देश करार देते हुए भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश को फिर से एक होने का आह्वान किया है। यह भी डा. शर्मा अपनी पुस्तकों में कह चुके हैं।

इन देशों का फिर से एक होना आज एक असंभव सी बात लग सकता है, पर यही इन देशों का प्रारब्ध है जिसे उन्हें आनेवाले पचास-सौ सालों में साकार करना होगा। आज हर युवक और विचारशील व्यक्ति का कर्तव्य बनता है कि वह इस सपने को सत्य में बदलने के लिए अपना योगदान करे। शुरुआत वह उर्दू सीखकर और उर्दू साहित्य से अपना परिचय बढ़ाकर कर सकता है। इससे उसे यह अच्छी तरह समझ में आ जाएगा कि ये दोनों भाषाएँ एक ही हैं और ये दोनों भाषाएँ बोलनेवाले लोग भी वास्तव में एक ही कौम के अंश हैं, भले ही वे अलग-अलग धर्मों में विश्वास करते हों। दो धर्म, दो देश वाली विचारधारा अंग्रेजों द्वारा इस देश को कमज़ोर करने और तोड़ने के लिए फैलाया गया विषवृक्ष है। यह पाकिस्तान के बनते ही उसके दो टुकड़ों में बटने से और पाकिस्तान के आज की हालात से बखूबी स्पष्ट है। आज पाकिस्तान नाम के लिए मुसलमानों का देश है पर वहाँ मुसलमान सुरक्षित नहीं हैं। सुन्नी शिया को मार रहे हैं, अफगान पाकिस्तानियों को मार रहे हैं और पाकिस्तानी अफगानों, अहमदियों, बोहरा मुस्लिमों और महिलाओं पर अत्याचार ढो रहे हैं।

हम सबको इस विष-वृक्ष की जड़ें काटकर इस देश को (जिसमें उसके दो भटके टुकड़े भी शामिल हैं) मजबूत करना होगा।

Monday, January 21, 2013

उपभोक्ता चयन का महत्व

अधिकांश शहरी उपभोक्ताओं के समान मैं भी आजकल बड़े मॉलों में उपलब्ध एक ही तरह की चीज़ के अनेक विकल्पों से कुछ परेशान सा रहता हूँ। चाहे वह साबुन हो, या टूथपेस्ट, पंखा हो या मोबाइल, दर्जनों विकल्प उपलब्ध रहते हैं, और सब एक से बढ़कर एक बढ़िया या घटिया। ऐसे में यह तय कर पाना कठिन होता है कि किस विकल्प को चुनें।

अपने बचपन की एक मिसाल दूँ तो बात अधिक स्पष्ट होगी। जहाँ तक मुझे याद है, ठेठ बचपन से लेकर मेरे कॉलेज के दिनों तक घर में एक ही प्रकार का साबुन उपयोग किया जाता था, मैसूर सैंडल। इसकी तुलना में आज मेरे बच्चे एक साथ कई साबुन उपयोग करते हैं – बालों के लिए एक, हाथ धोने के लिए दूसरा, स्नान करने के लिए तीसरा। इसके अलावा अनेक प्रकार के शैंपू, हैंडवाश, लोशन, क्रीम आदि, आदि, सब अलग। इतना ही नहीं हर महीने उनकी पसंदें बदलती रहती हैं। आज पिएर्स साबुन है तो कल डोव और परसों गोदरेज। लगता है आजकल के युवा-जन विज्ञापनों के आधार पर या दोस्तों, सहपाठियों, रिश्तेदारों की देखादेखी चयन करते हैं।

एक समय वह था जब हम अपने उपभोक्ता चयनों से सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन लाने की कोशिश करते थे। हमारे ही देश के स्वाधीनता संग्राम को ही लीजिए जब अंग्रेजों को यहाँ से खदेड़ने के एक कारगर तरीके के रूप में उनके देश में बने कपड़ों और अन्य वस्तुओं के बहिष्कार का आंदोलन गाँधी जी और अन्य नेताओं ने चलाया था, और जिसका विकसित रूप, स्वदेशी आंदोलन, आज भी हमारी राजनीति को थोड़ा-बहुत प्रभावित करता है। पर ऐसा लगता है कि आजकल के युवक अपने उपभोक्ता चयनों में किसी ऊँचे आदर्श को बीच में लाने को या तो नापसंद करते हैं या उनकी राजनीतिक जागरूकता इतनी विकसित नहीं हुई है कि वे इसकी ताकत को पहचान सकें।

मैं समझता हूँ कि उनकी इस आदर्शहीन उपभोक्ता चयन समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाने के एक शक्तिशाली जरिए से उन्हें वंचित कर रहा है और वे जाने अनजाने उपभोक्ता संस्कृति के हाथों कठपुतले बनते जा रहे हैं। उपभोक्ता संस्कृति चाहती है कि हम ज्यादा से ज्यादा उपभोग करें, चाहे हमें उपभोग की जा रही वस्तुओं की आवश्यकता हो या नहीं। तभी इन उपभोक्ता वस्तुओं को बनानेवाली कंपनियों को निरंतर मुनाफा प्राप्त होता रह सकेगा। पर क्या उनका निरंतर मुनाफा प्राप्त करते जाना अधिक व्यापक मानव समाज के लिए अच्छा है? पृथ्वी के सीमित साधनों का क्या यह दुरुपयोग नहीं है? जो चीज़ वर्षों चल सकती हो, उसे कुछ ही महीने के उपयोग के बाद फेंककर, उसी के जैसी नई वस्तु खरीदकर लाना क्या आत्म-तुष्टि का चरम उदाहरण नहीं है? जब हमारे चारों ओर इतने व्यापक पैमाने पर गरीबी, कुपोषण, अशिक्षा और संरचनात्मक विघटन हो, तो यह कहाँ तक उचित है कि हम अपनी कल्पित इच्छाओं की पूर्ति करते जाएँ? महात्मा बुद्ध ने सही ही कहा था कि हमारी इच्छाओं का कोई अंत नहीं है, उन्हें परिश्रम से दबाना होगा, और उसे निहायत जरूरी चीजों तक सीमित करना होगा। उन्होंने यह निर्वाण प्राप्त करने के संदर्भ में कहा था, पर यह आज समतापूर्ण समृद्धि प्राप्त करने के संदर्भ में अधिक प्रासंगिक है।

पूँजीवादी संस्कृति की मुख्य कमी भी यही है। वह उपभोक्तावाद को उकसाता जाता है, मनुष्यों और मानव समाजों की वास्तविक ज़रूरतों से उसका कोई तालमेल नहीं रहता है। इसलिए, एक ओर अमरीका जैसे अमीर देश फिजूल-खर्ची और अंधाधुंध प्रौद्योगिकीय विकास को बढ़ाते जाते हैं, जैसे चाँद पर आदमी उतारना, या मंगल ग्रह में उपग्रह भेजना, परमाणु हथियार बनाना आदि, तो दूसरी ओर भारत, अफ्रीका, अफ़गानिस्तान आदि गरीब देशों में करोड़ों लोग भूख से व्याकुल हैं, उनके पास पहनने के लिए ढंग के वस्त्र नहीं हैं, उनके बच्चे स्कूल नहीं जा पाते, और उनके शहरों में आधारभूत अधिसंरचनाएँ (सड़कें, रेल, मकान, आदि) बहुत ही खराब हालत में हैं। यदि अमरीका और अन्य विकसित देश चाहें तो उनके पास मौजूद दौलत और प्रौद्योगिकी से इन सबको क्षण-भर में ही दूर कर सकते हैं, पर पूँजीवादी संस्कृति का मुख्य ध्येय मुनाफा कमाना होता है, न कि मनुष्यों की तकलीफों को दूर करना।

इसीलिए पूँजीवादी संस्कृति को नियंत्रित करने और उसे मानव कल्याण की ओर मोड़ने के लिए बाहरी ताकतों की आवश्यकता होती है वह चाहे राज्य की शक्ति हो, या उपभोक्ताओं का संगठित प्रयास (उपभोक्ता चयन), या विप्लव या साम्वाद। इनमें से केवल उपभोक्ता चयन ही एक ऐसा जरिया है जिससे आम आदमी (यानी आप और मैं) पूँजीवादी संस्कृति को नियंत्रित कर सकता है और उसे जन-कल्याणकारी कामों में लगा सकता है।

तो हमें अपने उपभोक्ता चयनों को उच्च आदर्शों के साथ समेकित करना होगा। कोई चीज़ खरीदने से पहले यह सोचना होगा कि क्या हमें उसकी जरूरत है? उसका कोई अन्य विकल्प बेहतर हो सकता है? क्या उसे बड़े मॉल से खरीदना अधिक जन-हितकारी है या नुक्कड़ के किराने की दुकान से खरीदना? क्या उस उत्पाद में निहित नैतिक और सामाजिक मूल्य जन-हितकारी हैं या अहितकारी? उदाहरण के लिए, यदि उस चीज़ के विज्ञापन में कोई ऐसी बात दर्शाई जा रही हो जो समाज के लिए नुकसानदेह है, तो हमें उस वस्तु को खरीदने से इन्कार कर देना चाहिए, भले ही वह कितना ही अधिक किफायती, उपयोगी, तकनीकी दृष्टि से बेहतर या अन्य रीति से हमारे लिए लाभदायक हो। मान लीजिए कि किसी टूथपेस्ट के विज्ञापन में मिहलाओं को अभद्र और आपत्तिजनक रूप से दर्शाया गया हो। इससे उस विज्ञापन को देखनेवाले व्यक्तियों, विशेषकर युवा जनों पर हानिकारक नैतिक प्रभाव पड़ सकता है, जिससे समाज के नैतिक मूल्यों का ह्रास हो सकता है। तो ऐसे विज्ञापनों को रोकने का हमारे पास एक ही साधन है कि हम उस विज्ञापन में दर्शाई गई चीज़ को न खरीदने का निर्णय लें और उस चीज़ के निर्माता को अपने निर्णय से अवगत कराएँ। और इससे आगे बढ़कर हम उन लोगों को भी जिन पर हमारा नियंत्रण या प्रभाव है इस चीज़ को न खरीदने या उपयोग करने की सलाह दें। इससे होनेवाले आर्थिक नुकसान से घबराकर उस चीज़ का निर्माता उस विज्ञापन को बदलने पर मजबूर होगा और उस विज्ञापन की अभिकल्पना करनेवाले लोग कोई दूसरा और अधिक सकारात्मक विज्ञापन सोचने को प्रेरित होंगे। इससे पूरे समाज को फायदा होगा।

हिन्दी ब्लॉग टिप्सः तीन कॉलम वाली टेम्पलेट